धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । 

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।। १।। 

(धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे, समवेताः, युयुत्सवः, मामकाः, पाण्डवाः, च, एव, किम्, अकुर्वत, सञ्जय)

धर्मक्षेत्रे = धर्मभूमि, कुरुक्षेत्रे: = कुरुक्षेत्रमें, समवेता = एकत्रित, युयुत्सवः = युद्ध की इच्छा वाले, मामकाः = मेरे, च  = और, पाण्डवाः = पाण्डुके पुत्रोंने, किम् = क्या अकुर्वत = किया, सञ्जय  = हे संजय!

धृतराष्ट्र ने कहा - हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?

कुरुक्षेत्र अंबाले से दक्षिण और दिल्ली से उत्तर की ओर है। धर्ममय कार्य होने से तथा राजा कुरु की तपस्या भूमि होने से कुरुक्षेत्र को धर्मभूमि कुरुक्षेत्र, धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र कहा जाता है। गीता के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने से धर्मका अनुष्ठान हो जाता है। कोई भी काम धर्म अनुसार ही करना चाहिये। 

राजा धृतराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन होने के अतिरिक्त आध्यात्मिक ज्ञान से भी वंचित थे ।

दस दिन तक युद्ध हो चुका था और भीष्म को रथ से गिरा देने के बाद संजय हस्तिनापुर आकर धृतराष्ट्रको वहाँ की घटना सुना रहे थे ।

‘किम् अकुर्वत’ कहकर धृतराष्ट्रने गत दस दिनों के भीषण युद्ध का पूरा विवरण जानना चाहा ।  

दुर्योधन आदि राज्य को लेकर युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्म को लेकर । 

धृतराष्ट्, पाण्डवों को अपना नहीं मानते थे। इस कारण उन्होंने अपने पुत्रों के लिये ‘मामकाः’ और पाण्डु पुत्रों के लिये ‘पाण्डवाः’ पदका प्रयोग किया है । उन्होंने जान-बूझ कर अपने पुत्रों को कुरु कहा और पाण्डु के पुत्रों को वंश से अलग माना । 

संजय ने ‘मामकाः’ पद का उत्तर  दूसरे श्लोक से छठें श्लोक तक तथा ‘पाण्डवाः’ पद का उत्तर सातवें श्लोक से नौवे श्लोक तक दिया ।

जब हम जानते है कि क्या सही है और क्या गलत है और उसके बावजूद हम अपने लोगों से पक्षपात करते हैं ‌तब हम धृतराष्ट्र हैं । जब हमे धर्म भी अधर्म लगने लगे तो भी हम धृतराष्ट्र हैं । जब हम मन या कर्म से भी अंधे हो जाते है तब भी हम धृतराष्ट्र है । 

राज्य तो कौरव और पांडवों का था परंतु धृतराष्ट्र ने पांडवों को अपना समझा ही नहीं । सब मोह । और परिणाम वही होना है जो कुरुवंस का हुआ । जब हम बार-बार झूठ-झूठ कहते है तो हम स्वयं एक समय बाद सच को झूठ ही समझने लगते है । युद्ध का कारण भी सही गलत में अंतर न समझ पाना ही था । 

अपने पराए का बीज जो धृतराष्ट्र ने बोया था, उसे तो पनपना ही था । और जो पनपेगा, वह बड़ा भी होगा ।  जिसकी कीमत धृतराष्ट्र ने अपने वंश के नाश से चुकाया । हम भी अपने परिवार से / दोस्तो से / कर्तव्यों से पक्षपात करने लग जाते है ।

जिस प्रकार एक सड़ा हुआ फल अपने पास पड़े हुए सभी फलों को बर्बाद कर सकता है उसी प्रकार धृतराष्ट्र की दुर्बुद्धि / द्वेष ने उसके कुल का नाश कर दिया ।

इसी के साथ जय हिंद और स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 2023 की ढेरों शुभकामनाएँ !