दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।२।।
दृष्ट्वा, तु, पाण्डवानीकम्, व्यूढम्, दुर्योधनः, तदा, आचार्यम्, उपसङ्गम्य, राजा, वचनम्, अब्रवीत् ।।२।।
संजय बोले—
दृष्ट्वा = देखकर, तु = और, पाण्डवानीकम् = पाण्डवों की सेनाको, व्यूढम् = व्यूह रचनायुक्त, दुर्योधनः = दुर्योधनने, तदा = उस समय, आचार्यम् = द्रोणाचार्य के, उपसङ्गम्य = पास जाकर, राजा = राजा, वचनम् = वचन, अब्रवीत् = कहा ।
दुर्योधन अनुमान के विपरीत पाण्डवों की विशाल सेना देखकर व्याकुल, हतोत्साहित और भयभीत हो गया।
दुर्योधन का द्रोणाचार्य के साथ गुरु के नाते तो स्नेह था, पर परिवार के नाते स्नेह नहीं । अर्जुन पर द्रोणाचार्य की विशेष कृपा थी। अतः द्रोणाचार्य को राजी करने के लिये दुर्योधन उनके पास जाना उचित समझा । दुर्योधन निति के अनुसार गंभीर वचन बोलता है, जिससे द्रोणाचार्य के मन में पांडवो के लिए द्वेष पैदा हो सके और वे उसके पक्ष में रहते हुए अच्छे से युद्ध करे । उसे पता था कि द्रोण का झुकाव अर्जुन की ओर है ।
वह यह भी जानता था कि भीष्म, उसके दादा अगर वे नाराज भी हो गए तो वह उनको मना लेगा ।
राजनीति में बुद्धिमान् अपना काम निकालने के लिये जिसके साथ स्नेह नहीं है उनका आदर करते हैं तथा अपना स्वार्थ सिद्ध करते है । उसको ज्यादा आदर देकर राजी करते है । अतः द्रोणाचार्य को अपने स्थान से न हटाकर दुर्योधन ने ही उनके पास जाना उचित समझा तथा उसने गुरु द्रोण से यह उपरोक्त वचन बोला।
सीख : जब कोई जरूरत से ज्यादा आपसे चापलूसी करने लगे तो आप मान लो की दाल में कुछ काला है । दुर्योधन का अचानक व्यवहार परिवर्तन - कुछ तो था ।
चापलूस का दंश सबसे गहरा होता है । उस समय तो दंश का दर्द पता नहीं चलता किन्तु वह अपने स्वार्थ साधन के लिए आपको जब धोखा दे देता है या आपको चिकनी-चुपड़ी बातें कहते हुए ऐसी लतों या नशों में फंसा देता है, जो जीवन भर आपका अहित करते रहते है । उसकी पीड़ा बहुत चिरस्थायी होती है ।
सम्मान जताने के लिए चापलूसों के हाथ हमेशा जुड़े रहते हैं और कमर झुकने को यों आतुर रहती है मानो रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया है
आखिर कहा गया है न -
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
अर्थात मंत्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि (अप्रसन्नता के) भय या (लाभ की) आशा से (हित की बात न कहकर) प्रिय बोलते हैं (सुहाती कहने लगते हैं), तो (क्रमशः) राज्य, शरीर और धर्म- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है ।
सर्पदुर्जनयो र्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पो दशति कालेन दुर्जनस्तु पदे ॥
सर्प और दुर्जन इन दोनों में दुर्जन से साँप अच्छा क्यों कि सर्प तो समप आने पर हि काटता है, लेकिन दुर्जन तो हर कदम पर काटता है ।
कहते हैं - मत रहना चाहे दुश्मनों और जासूसों से बचकर, पर ज़रूर रहना ज़िन्दगी में चापलूसों से बचकर ।
सांप केवल आत्मरक्षा के लिए काटेगा लेकिन चापलूस व्यक्ति आपको चोट पहुंचाने का कोई मौका नहीं छोड़ेगा ।
दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्विश्र्चासकारणम् ।
मधु तिष्ठति जिह्याग्रे हदये तु हलाहलम् ॥
दुर्जन प्रियबोलनेवाला हो फिर भी विश्वास करने योग्य नहीं होता क्यों कि चाहे उसकी जबान पर भले हि मध हो, पर हृदय में तो हलाहल झहर हि होता है ।
चमचा जिस बर्तन में रहता है उसे खाली कर देता है, इसलिए चमचों से सावधान !!! और यही वह चमचा था जिसने द्रोणाचार्य के जीवन को दांव पर लगा दिया ।
इसी के साथ जय हिंद और स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 2023 की ढेरों शुभकामनाएँ !
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