प्रिय पाठक,
मुझे लिखने का शौक है मेरे लाइब्रेरी में 600 से ज्यादा मोटिवेशनल, एंटरप्रेन्योरशिप, मैनेजमेंट, माइथोलॉजी इंटरनेशनल एवं नेशनल बेस्ट सेलर किताबें, किंडल, पीडीएफ किताबें इत्यादि हैं | ब्लॉगिंग मेरा शौक है अभी मुझे एक पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | कुछ अनुभव ने मुझे नवजात से सीखें लिखने के लिए प्रेरित किया |
श्रीमद्भागवत गीता मेरी पसंदीदा धर्म ग्रंथ है जिसके अध्याय 3 के कर्म योग से संबंधित कुछ मुख्य श्लोक मैंने प्रस्तुत किया है |
अगर हम सोच रहे हैं कि हम गरीब हैं तो इसमें हमारी गलती है । किसी ने सही कहा है कि गरीब होना पाप नहीं है लेकिन गरीब मर जाना अभिशाप है | यदि हम सोचते हैं कि गरीबी अभिशाप है तो हम उसे सोचना बंद कर दें और इसे एक वरदान के रूप में माने | क्योंकि इसने हमें कुछ करने के लिए कुछ हासिल करने के लिए प्रेरित किया है ।
जिन्हें जरूरत होती है वही रास्ते चलते हैं । कहीं जाने के लिए मंजिल की अर्थात आवश्यकता की जरूरत है। यदि मंजिल ही नहीं रहेगा तो हम चलेंगे ही नहीं। सफलता के लिए मंजिल का होना अर्थात लक्ष्य का होना आवश्यक है | यदि हम असफल हैं तो सफलता को पाने के लिए प्रयास करेंगे और वही हमारा लक्ष्य होगा, वही मंजिल होगी तो हम कर्म करेंगे । यदि हमारे पास यदि अभाव नहीं है तो हम कर्म करने से हिचकने लगेंगे । आवश्यकता आविष्कार की जननी है, तो अभाव भी कुछ पाने का रास्ता ।
मेरा यह मानना है कि जीवन में सरलता से कुछ नहीं मिलता | जी हां, कुछ भी नहीं | हम अपने आसपास सफल लोगों को देखते हैं तो कभी-कभी हमें इससे ईर्ष्या होने लगती है की अरे मैं इससे ज्यादा पढ़ा लिखा हूं, इतने कम समय में इतना क्यों बढ़ गया, अरे पहले तो मेरे साथ ही काम करता था और आज उसने बड़ी गाड़ी कैसे खरीद ली, वह फोर व्हीलर पर कैसे आ गया, मेरे पास इससे ज्यादा साधन है परंतु मेरे साथ हैं समस्या थी इसलिए मैं नहीं कर सका, मेरा भाग्य ही खराब है, समय ठीक नहीं था इत्यादि-इत्यादि |
परंतु दोस्तों हमें एक बात ध्यान देना चाहिए किसी इमारत का जितना भाग हम ऊपर से देखते हैं उससे ज्यादा जमीन के नीचे होता है | हम तो सिर्फ इमारत की ऊंचाई को ही देख पाते हैं | हमें यह आभास भी नहीं होता कि इमारत की नींव कितनी मजबूत और कितनी गहराई तक होगी | इसे बनाने में कितनी मेहनत एवं लागत लगी होगी | हम सिर्फ ऊपर-ऊपर देखते हैं | हमें सामने वाले के त्याग एवं परिश्रम इत्यादि दिखाई नहीं देते | दोस्तों रोम का निर्माण 7 दिन में नहीं हुआ | एफिल टावर जब बनकर तैयार हुआ था, उस वक्त यह दुनिया की सबसे ऊँची 324 मीटर की इमारत थी | इतना ऊंचा दिखाई देता है कि हम आश्चर्य से देखते ही जाते हैं | हम कभी कल्पना भी नहीं करते हैं कि इसके नीचे भी कितना होगा | जो जितना ऊंचा होता है उसकी नींव भी उतनी ही मजबूत होती है |
हम परिश्रम करना एवं योजना बनाना भूल कर अपना ऊर्जा ईर्ष्या में लगाते हैं | हम अपना मूल उद्देश्य छोड़कर बेकार की बातों में समय बर्बाद करते हैं एवं खुद को एवं अपनी किस्मत को कोसते हैं | अपने सामने समस्या का बहाना करके खुद को संतुष्ट करते हैं और असफल होने की वजह खराब परिस्थितियों को बता कर अपने को झूठी दिलासा देते हैं |
सफलता के कुछ नियम होते हैं जो हमें मानने ही होंगे | कर्म सभी को करना पड़ता है चाहे वह तुरंत का पैदा नवजात शिशु ही क्यों ना हो, या स्वयं भगवान ही क्यों न हो | श्री कृष्ण भी कर्म से नहीं छूट सकें | गीता के तीसरे अध्याय, कर्म योग में श्री कृष्ण ने कहां है - कर्म के बिना तो खाने के लिए अन्न भी नहीं मिल सकता। पृथ्वी के मनुष्य और स्वर्ग के देवता दोनों का संबंध भी कर्मचक्र पर ही आश्रित है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता | क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः
- अध्याय 3 श्लोक ॥5॥
वह अर्जुन से कहते हैं "हे अर्जुन तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा" |
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः
- अध्याय 3 श्लोक ॥8॥
कृष्ण जी बताते हैं कि जनक आदि विद्वान भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है |
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि
- अध्याय 3 श्लोक ॥20॥
श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 3 के श्लोक संख्या 22 में श्री कृष्णा कहते हैं - हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ अर्थात कर्म में लगा रहता हूं एवं कर्म करता हूं | यथा -
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि
- अध्याय 3 श्लोक ॥22॥
श्री कृष्ण कहते हैं कि यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ अर्थात कर्म ना करूं तो बड़ी हानि हो जाए | क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं | अर्थात श्री कृष्ण यह बताते हैं कि देखो कर्म तो मुझे भी करना पड़ता है | इस संसार में हर प्राणी को कर्म करना ही पड़ता है | कृष्ण बताते हैं कि यदि मैं कर्म ना करूं तो सोचो इस संसार का क्या होगा |
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः
- अध्याय 3 श्लोक ॥23॥
आगे कहते हैं कि यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ |
यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः
- अध्याय 3 श्लोक ॥24॥
दोस्तों इस जगत में कर्म करने पर हमें उसका फल मिलता ही मिलता है | श्री कृष्ण ने कहा है कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो | श्री कृष्ण यह बताना चाहते हैं कि तुम कर्म करो फल के बारे में चिंता मत करो | फल अवश्य मिलेगा | वह हमारे हाथ में है | मैं कभी किसी को निराश नहीं करूंगा |
हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया अवश्य होती है और कर्म का प्रतिक्रिया उसके फल के रूप में अवश्य प्राप्त होगा | अतः उसके बारे में सोचना नहीं चाहिए | बस सही दिशा में प्रयास करके कर्म में लगे रहना चाहिए एवं अपनी कमजोरियों से समस्याओं से सीख लेकर आगे बढ़ते रहना चाहिए |
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
- अध्याय 2 श्लोक ॥47॥
दोस्तों न्यूटन का तीसरा नियम हमारे वास्तविक जीवन और जीवन के हर मोड़ पर लागू होता है | तीसरे नियम के मुताबिक हर क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती ही होती है।
संघर्ष हमारे लिए कोई नया शब्द नहीं है यह जीवन के प्रथम पल से हमें करना होता है | हम अभी-अभी पैदा हुए हैं इन्फेंट से सीख सकते हैं |
जरा सोचें - वह अभी अभी एक नई दुनिया में प्रवेश किया है | उसके लिए सब कुछ कितना अजीब होगा | कहां एक बंद काल कोठरी और कहां बाहर सब कुछ बदला-बदला | अचानक से इतना परिवर्तन !!!
एक माहौल इतना संकीर्ण कि वह ठीक से अपने हाथ पांव भी नहीं पसार पाता था | क्या उसने उस कठिन पल को नहीं जिया ? आप कल्पना करें - एक छोटे से पानी के पाउच (एमनियोटिक सैक) में उसने अपने आपको कितने कठिन परिस्थितियों में सरवाइव कर के रखा है | उसे ना तो बाहर की ताजी हवा मिलती थी, न तो वह सांस लेने में सक्षम था, भोजन हवा सब कुछ एक छोटी सी नली से प्राप्त करता था | जरा सोचें - उसे इस धरा पर आने के लिए कितने कष्ट झेलने पड़े होंगे |
यह कल्पना करके ही हमारी रूह है कांप जाएगी कि यदि हमें एक ब्रीफकेस में कुछ दिन के लिए ऑक्सीजन के साथ छोड़ दिया जाए जहां सिर्फ घना अंधेरा हो | मुझे पता है आप सोच कर ही सहम उठे होंगे | जरा सोचें कि कुछ दिनों का लॉक डाउन हमें कितना विचलित कर रखा है जबकि हम घर में स्वतंत्र हैं | फिर भी एक जगह बंधे रहना कितना कष्टप्रद लगता है | हमारे पास एक इन्फेंट जैसी इतनी विकट समस्या कभी भी नहीं होती हैं | इन्फेंट सरवाइव कर सकते हैं एवं परिस्थितियों को अपने आपको अनुकूल बना लेते हैं तो हम क्यों नहीं ????
एक इन्फेंट को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए एक अकल्पनीय कठिन समस्या एवं परेशानियों से गुजरना होता है | उसका संघर्ष सिर्फ यहां ही नहीं खत्म होता | धरती पर आते ही उसे अपने को जीवित रखने एवं अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए प्रथम क्षण में ही संघर्ष शुरू करना पड़ता है | उसने आज तक अपने फेफड़े को कभी प्रयोग नहीं किया क्योंकि उसे सब कुछ अलग तरीके से मतलब आसानी से एक पतली नली के माध्यम से मिल जाता था | लेकिन यह क्या !! बाहर तो वहां एक सेकंड भी अपने फेफड़े प्रयोग के बिना नहीं रह सकता | अगले ही क्षण उसे अपने को इस परिस्थिति के अनुसार अपने फेफड़े को ढालना होता है कि वह नए वातावरण में, नई समस्या में प्रवेश करते ही उसका समस्या का हल ढूंढ ले | और वह करके रहता है | जरा सोचें - एक नन्हा सा जीव यह सब कैसे कर लेता है | वह तेज आवाज से रोते हुए अपने फेफड़े की प्रक्रिया को शुरू करता है | यह उसकी आत्म बल एवं आत्म शक्ति होती है जो उसे ऐसा करने के लिए मजबूर करती है | यदि इसे आप प्रकृति का नियम भी मानते हैं तो भी यह स्पष्ट है कि प्रकृति भी हमें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है |प्रकृति हमें एक नवजात से कुछ सीखने के लिए प्रेरित करती है |
आत्मबल से व्यक्ति कुछ भी कर सकता है | जी हां !!! कुछ भी !!! अभी हाल में ही आपने समाचार पत्र एवं न्यूज़ चैनल में देखा होगा कि कैसे आत्मबल के सहारे एक छोटी सी, कक्षा आठ में पढ़ने वाली, लड़की ज्योति ने कैसे 1200 किलोमीटर मात्र 7 दिन में साइकिल से नाप दिया और गुरुग्राम से अपने गांव दरभंगा पहुंची | कैसे उसने सड़क की लंबी दूरी को आइना दिखा कर उसकी औकात दिखा दी | यह क्या था !!! हम सोच भी नहीं सकते | यह उसका आत्मबल ही तो था |
बात यहां पर खत्म नहीं होती | अभी उसके सामने ढेर सारी और भी जिम्मेदारियां समस्याएं उसके लिए नई चुनौतियां हैं |उसे एक नए जगत में प्रवेश लेते ही बहुत कुछ नए चुनौतियों को सामना करना पड़ता है | हवा के साथ-साथ भोजन भी उसे चाहिए | कितना मुश्किल है न ? अब वह अपने आप को इस अनुकूल ढाल लेता है | अपने जीवन में प्रथम बार वह अपने मुख का प्रयोग करता है और दुग्ध पान करता है |
जरा सोचें एक मिनट पहले पैदा हुआ शिशु जिसे सांस लेना नहीं आता था और जिसने अभी 9 माह तक कुछ भी नहीं सीखा था तुरंत अपने आपको नए परिवेश में कैसे ढाल लेता है | क्या उसे इसकी कोई ट्रेनिंग मिली है ??? एक मील का भोजन अर्थात दुग्ध पान करने के लिए उसे सैकड़ों बार मुख का प्रयोग करना होता है | क्या उस में इतनी ताकत होती है ? शायद नहीं !! लेकिन वह अपने आपको इसके काबिल चंद घंटों में ही बना लेता है | आप कल्पना कीजिए कि क्या यह सरल कार्य है !!!
अपना मुख सौ बार यदि हम चलाने की कोशिश करते हैं तो हमारे पसीने छूट जाते हैं | आप चाहे तो प्रयोग करके देखिए और जरा स्वयं से पूछिए कि आपको कितनी मेहनत करनी पड़ी | अब आप एक छोटे से इन्फेंट के कर्मों / उसके द्वारा की गई परिश्रम का एहसास करिए | अब आप समझ गए होंगे कि एक छोटे से बच्चे को भी अपना जीवन निर्वहन करने के लिए कितना मेहनत करना पड़ता है | आखिर करना तो पड़ेगा, सर्वाइवल का जो प्रश्न है | क्या यह हमें कुछ सोचने के लिए मजबूर नहीं करता !!!
सिर्फ इतना ही नहीं, उसने अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए अपने मुट्ठी को कभी नहीं खोला और अंगूठा तो मुट्ठी के अंदर की ओर बंद रखा | यदि उसकी मुट्ठी पेट के अंदर खुली होती तो उसका नाखून जरूर ही अपने पानी से भरी हुई थैली (एमनियोटिक सैक) को नुकसान पहुंचाती और उससे उसके स्वयं के अस्तित्व को खतरा होता | एक इन्फेंट या स्वयं प्रकृति हमें यह सिखाना चाहती है की भावी खतरों को भापकर हमें इससे लड़ने के लिए अपने आपको तैयार करना पड़ेगा, भले ही हमें थोड़ा कष्ट ही क्यों न मिले और यह अप्रत्यक्ष रूप से आपके हित में है |
क्या एक नन्हे से मासूम ने अंधेरे में रहना, पानी (एमनियोटिक सैक) में रहना, एक पतली सी नली के माध्यम से भोजन प्राप्त करना, ऑक्सीजन लेना और एकदम छोटी सी जगह में स्वयं को परिस्थितियों के अनुसार नहीं ढाला? क्या उसने अपने अस्तित्व की लड़ाई में अपने को तैयार नहीं रखा ? उसने समय की मांग एवं परिस्थितियों के अनुसार अपने घुटने को मोड कर मुट्ठी को बंद करके नहीं रखा ?
सफलता निरंतरता एवं अपने को परिस्थितियों से जूझने के लायक बनाने से ही मिलती है |
एक शिष्य ने स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस से सफलता का राज पूछा तो गुरुजी ने उसे अगले दिन नदी के पास स्नान के समय बुलाया | जैसे ही वह शिष्य वहां पहुंचा गुरु जी के इशारे पर दो अन्य शिष्यों ने उसे उठाकर पानी में धोखा दे दिया और कुछ देर तक बल का प्रयोग करके पानी में रहने के लिए मजबूर किया |
वह किसी तरह जान बचाकर वहां से बाहर निकला और स्वामी जी से प्रश्न किया - "आपने क्या किया?" मैं मर भी सकता था | गुरुजी ने कहा - फिर तुमने क्या किया ? शिष्य बोला - "मुझे तैरना नहीं आता था फिर भी मैंने अपना भरसक प्रयास किया, अपने पांव को रेत में जमा लिया जिससे कि पानी का बहाव मुझे खींच न ले जाए और इस प्रकार मैंने जी जान लगाकर अपने आपको बचाने का प्रयास किया तभी मैं बच पाया अन्यथा आज तो मैं मर ही जाता |
गुरुजी ने कहा कि तुम्हारे प्रश्न का यही उत्तर है | तुम्हें सफलता पाने के लिए इसी प्रकार परिश्रम एवं जी जान लगाकर अथक प्रयास करना होगा तभी तुम सफल हो सकते हो | दोस्तों किसी चीज को पाने के लिए पागलपंती जरूरी है | तब तक प्रयास करना चाहिए जब तक कि वह हासिल न हो जाए |
दोस्तों कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है | प्रयास / मेहनत करना पड़ता है | बिना मेहनत के कुछ नहीं मिलता |
हम प्रकृति के नियम से खिलवाड़ नहीं कर सकते | यह सभी जीव-जंतुओं पर लागू होता है |
बिना संघर्ष के हम उस कैटरपिलर की भांति होंगे जो बिना मेहनत के बाहर आ सकते हैं परंतु अस्तित्व की लड़ाई से हार जाते हैं |
जीव विज्ञान की एक कक्षा में एक अध्यापक कुछ बच्चों को यह शिक्षा देना चाहते थे | उन्होंने एक कैटरपिलर लिया जिससे तितली का बच्चा बाहर निकलने ही वाला था कि अध्यापक जानबूझकर क्लास छोड़कर बाहर चले गए | बच्चों सोचा कि बेचारी को कितना परिश्रम करना पड़ रहा है | क्यों न हम इसके ऊपरी खोल को तोड़ दें और वह आसानी से बाहर आ जाए | बच्चों ने ऐसा ही किया |
और फिर क्या था, अध्यापक आए तो बच्चों ने अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने कैटरपिलर की मदद की है | लेकिन यह क्या - तितली कैटरपिलर से बाहर तो निकली लेकिन उसके पंख जवाब दे चुके थे और वह उड़ने में असमर्थ थी | कुछ समय बाद ही वहां अपने जीवन से जंग हार गई | जरा देखें प्रकृति का नियम एक कैटरपिलर भी कर्म भी नहीं हो सकता अर्थात उसे भी कर्म करना ही पड़ता है, यदि वह संघर्षों से बाहर निकलती है तभी वह अपना जीवन जी सकती है और एक लंबी और ऊंची उड़ान लगा सकती है |
दोस्तों जीवन फूलों की सेज नहीं है बल्कि कांटों से भरा रास्ता है | इस बात को हमें मानना ही होगा | हमें इसे अपनाना होगा अन्यथा हम पीछे रह जाएंगे | बस जरूरत है हमें न निराश होने की |
कवि मैथिलीशरण गुप्त ने बहुत ही सरल शब्दों में गागर में सागर भरते हुए इस सार्वभौमिक सत्य को प्रस्तुत किया है एवं हमें निराश न होने के लिए प्रेरित किया है | उन्होंने कविता के माध्यम से हमें प्रेरित किया है कि -
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।
प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जन हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।
करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
(मैथिलीशरण गुप्त)
अब एक बाज के बच्चे को ही देख ले | कहने को तो बाज उड़ने के मामले में पक्षियों का सम्राट है, लेकिन क्या उसे यह तमगा इतनी सरलता से मिल गया ? बिल्कुल नहीं, कोई बच्चा पैदा होते हुए ही बाज नहीं बन गया | ऊंची उड़ान भरने के पहले अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, कठिन परीक्षा एवं ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है तभी वह पक्षियों का सम्राट कहला सका | जब वह पैदा होता है तो मां उसे अपने चोच में पकड़कर दूर आसमान में उड़ जाती है और फिर क्या, इतनी निर्दई, ओहो, मैंने तो सोचा भी नहीं था, वह उसे दूर आसमान से छोड़ देती है | अभी तो उसके पंख भी नहीं खुले हैं और वह जमीन पर हजारों मीटर ऊपर से गिर रहा है, हवा के थपेड़े अलग से लग रहे हैं | अब वह अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है | और ऐसा लगा कि मानो अगले ही क्षण वह जमीन पर होगा पर वास्तविकता कुछ अलग है |
जमीन के पास आते-आते वह अपने प्रयास करता है, पंख जकड़े हैं पर वह क्या करें, और जोर लगाता है, उसे लगता है कि उसकी उसकी मां ने उसके साथ ऐसा क्यों किया, जैसा कभी बुरा समय आने पर हम भी भगवान के बारे में ऐसा ही सोचते हैं परंतु हमें उसके छिपे रहस्य नहीं पता होते, अब मानो अपने आपको और अपने नसीब को कोस रहा हो | पर मरता क्या न करता, उसने हिम्मत नहीं छोड़ी, अंततः वह तेज झटके से अपने पंख को पसारता है और जमीन पर आने से पहले ही अपने पंखों को तेजी से फड़फड़ा कर उड़ जाता है |
आखिर में बाज ने अपने आप को विकट परिस्थितियों में भी संभाल ही लिया क्योंकि उसने धैर्य नहीं खोया और प्रयास करता रहा | जरूरत पड़ने पर समय-समय पर वह अपने पैंतरे बदलता रहा जब तक कि वह अपने को संभालने के काबिल नहीं हो गया और अंततः उसने वह तरीका खोज लिया जिससे वह अपने आप को संभाल कर धरती से टकराने से बच जाए | जरा सोचें - यदि उसने अपने पंख न खोले होते तो क्या होता ? क्या उसने कभी शिकायत की कि मुझे ट्रेनिंग नहीं दी गई इसलिए मैं नहीं उड़ पाऊंगा, मैं अभी बहुत छोटा हूं, मेरे सामने समस्या है, मैं नहीं कर सकता, इतनी ऊंचाई इत्यादि इत्यादि |
दोस्तों मेरे नजर में यह सिर्फ एक कहानी ही नहीं है, प्रकृति भी हमें कुछ सिखाना चाहती हैं | बस जरूरत है हमें समझने की, हमें परिस्थितियों से लड़ने के लिए तैयार रहने की, अथक प्रयास की, शिकायत ना करने की, हिम्मत ना हारने की |
हमें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हर संभव परिस्थिति से लड़ना सीखना पड़ेगा एवं अपने आपको हर परिस्थिति के लिए तैयार करना पड़ेगा | हमें भी अपने विकट परिस्थितियों में अपने को संभालना पड़ेगा, एक इन्फेंट बच्चे की भांति अपने मुट्ठी को बंद करना पड़ेगा जब तक कि वह गर्भ ( समस्या ) से बाहर न आ सके अर्थात सब्र करके, कष्ट सहकर सही समय का इंतजार करना पड़ेगा और एक समय आएगा जब हम समस्या के उबर चुके होंगे | हमें धैर्य नहीं खोना है एवं सही तरीका खोजना है तभी हम सरवाइव कर सकते हैं |
जिंदगी-मौत, सफलता-असफलता में बस बहुत थोड़ा सा ही फर्क होता है | सफलता और असफलता ने शायद कुछ अंक या कुछ दूरी का ही फर्क होता है | बस इतने ही अंतर के लिए थोड़ा सा और प्रयास करना पड़ता है और सफलता आपके कदम चूमती है |
एक बात का हमें अवश्य ध्यान रखना पड़ेगा कि हमें हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति के साथ रहना पड़ेगा | हमारे वातावरण का हमारे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है | जिस प्रकार एक ही गाजर के दो टुकड़े में से एक को चीनी की चासनी में और दूसरे को नमक लगा कर रखने पर कुछ दिन बाद एक टुकड़ा मुरब्बा और दूसरा टुकड़ा अचार बन जाता है। गाजर वही है लेकिन नतीजा अलग-अलग। इसलिए हम जो कुछ बनना चाहते हैं, वैसे माहौल, आचरण, दृष्टिकोण वाले व्यक्ति का साथ रहना चाहिए | नकारात्मक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति से हमेशा दूर ही रहना चाहिए |
आखिरकार एक नवजात शिशु भी इस संसार में आकर सांस लेना, दुग्ध पान करना इत्यादि शीघ्र ही सीख लेता है | क्या इसके लिए उसके पास कोई डिग्री, कोई अनुभव, कोई प्रमाण पत्र होता है ? नहीं, परंतु उसके सर्वाइवल की ज़िद उसे यह सीखने के लिए मजबूर करती है | हमारे असल जिंदगी में भी ऐसा ही होता है | वही सरवाइव करता है जो अपने को इस योग्य बनाता है |
एक छोटा सा इन्फेंट हमें कुछ सिखाना चाहता है या यह कहें कि प्रकृति हमें इसके माध्यम से कुछ बताना चाहती है जिसे हम बिंदुवार प्रस्तुत कर रहे हैं |
एक इन्फेंट से हमें निम्न बाते सीखनी चाहिए -
अपने परिस्थिति के अनुसार अपने को ढालना
दोस्तों जब एक छोटा शिशु अपने मां के गर्भ में था तो वहां के दस्तूर, नियम कायदे का उसने पालन किया और अपने को उस योग्य बनाया कि उस समय की परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल सके | धरातल पर आते ही उसने अपने आप को तुरंत ही परिवर्तित कर लिया | वह हमें यह सीख देता है कि हमें भी अपने व्यवसाय / कैरियर में जरूरत के अनुसार तुरंत अहम निर्णय लेना पड़ेगा, कहीं ऐसा ना हो कि हमें इसमें देर हो जाए |
नई चुनौती के लिए तैयार रहना
आपने देखा की शिशु ने जन्म लेते ही अनेक नई चुनौतियां कैसे स्वीकार कर ली | वह अपने फेफड़े को कैसे प्रयोग करने लगा एवं अपने गले को, अपने मुख को दुग्ध पान के लायक कैसे बनाया | एक छोटा बच्चा हमें यह सिखाता है कि हमें भी अचानक से अपने सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक संतुष्टि, व्यवसाय, कैरियर इत्यादि जीवन के हर क्षेत्र की हर चुनौती से लड़ने के लिए तैयार रहना पड़ेगा क्योंकि जो पीछे रह जाएगा उसका सर्वाइवल कठिन है |
हरिवंश राय बच्चन सफलता प्राप्त करने के लिए लिखा है -
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
कठिन परिश्रम करना व आलस्य न करना
शिशु को अपने भोजन की प्राप्ति के लिए अत्यंत कठिन परिश्रम करना पड़ता है | प्रकृति ने उसे यह बात प्रथम चरण में ही समझा दिया | एक छोटे शिशु को दिनभर में कम से कम 3-4 घंटे तक भोजन प्राप्ति के लिए मेहनत करना पड़ता है | यह सरल कार्य नहीं है, यह हमें यह सीख देता है कि बिना परिश्रम के कुछ भी नहीं मिलता, कुछ भी नहीं | जब एक शिशु को बिना परिश्रम के कुछ नहीं मिलता तो हम इसके विपरीत क्यों आशा करते हैं |
कहा गया है -
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥
उद्यम अर्थात मेहनत से ही कार्य की सिद्धि होती है सिर्फ मनोरथ रहने से कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता | सभी को मेहनत करना पड़ता है, सिंह जो जंगल का राजा है उसे भी स्वयं का भोजन प्राप्त करने के लिए दौड़ना पड़ता है, शिकार करना पड़ता है, उसके मुख में हिरण स्वयं से प्रवेश नहीं करते हैं | दोस्तों भागना तो सबको पड़ता है, चाहे वह शेर हो या हिरण | शेर को भोजन पाने के लिए एवं हिरण को प्राण बचाने के लिए, भागना तो दोनों को पड़ता है |
आप यह सोचे कि बिना कर्म के कुछ भी नहीं मिलता इस धरती पर तो भगवान श्रीराम ने भी अवतार लिया था । सोचे जब भगवान श्रीराम को कर्म करना पड़ा तो हम-आप तो एक इंसान है | क्या कृष्ण को कर्म नहीं करना पड़ा? दोस्तों इस धरती पर सभी को कर्म करना पड़ता है चाहे वह राजा हो या प्रजा ।
आलस्य के बारे में लेख है कि आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है एवं परिश्रम मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र है क्योंकि वह दुख में कभी भी नहीं रहते हैं जो परिश्रम करते हैं |
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः !
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति !!
(नीतिशतक)
अपने बात को रखना / अपना हक जताना
एक छोटा बच्चा अलग-अलग प्रकार से रोकर अपने माता-पिता को अपनी जरूरतों जैसे : भूख लगना, पेट दर्द, नींद आना, पॉटी करना, यूरिन डिस्चार्ज इत्यादि के बारे में के बारे में इंगित करता है | बिना किसी शब्द के प्रयोग के हम उसके बॉडी लैंग्वेज से सब समझ जाते हैं | जरा सोचिए सब का माध्यम सिर्फ और सिर्फ रोना ही है, अलग-अलग प्रकार से रोना | वह हमें यह सीख देता है कि हमें अपने ग्राहक, मित्र परिवार, रिश्तेदार, सरकार, नियोक्ता, कर्मचारी इत्यादि को अपनी बातें प्रभावशाली तरीके से अवश्य रखना चाहिए, तभी आपकी डिमांड पूरी होगी | कहावत है बिना रोए मां भी दूध नहीं देती | हमें सही प्रकार से बेहिचक कम्युनिकेशन अवश्य करना चाहिए और अपने बातों को रखना चाहिए |
हिम्मत ना हारना, निरंतर प्रयास एवं धैर्य रखना
एक छोटा बच्चा हमेशा अपनी भावनाओं को रोककर व्यक्त करता है और अक्सर ऐसा होता है जब हम उसकी बात समझ नहीं पाते कि उसे क्या चाहिए और वह तब तक रोता है जब तक कि उसकी इच्छित मनोकामना पूरी नहीं हो जाती | अंततः वह अपने लक्ष्य को बिना हिम्मत हारे, लगातार लगे रहकर, बिना धैर्य खोए प्राप्त कर लेता है | जिस प्रकार बूंद बूंद से घड़ा भरता है उसी प्रकार निरंतर प्रयास से लक्ष्य प्राप्ति अवश्य होती है |
आपके पास कोई भी समस्या हो उन्हें आप समस्या के रूप में न ले बल्कि एक चैलेंज के रूप में लें और यह मानें कि यह आपकी एक परीक्षा है | दोस्तों सफल होने के लिए हर एक चरण पर आपको परीक्षा देनी होती है चाहे वह एकेडमिक परीक्षा हो या करियर बनाने के लिए |
वरदराज जी ने कहा है -
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान।।
हमें सीख मिलती है कि हमें भी कभी हिम्मत नहीं हारना चाहिए जब तक कि हमें वांछित पद पोजीशन / लक्ष्य प्राप्त ना हो जाए
प्रसिद्ध कवि सोहनलाल द्विवेदी जी की जीवंत कविताओं से हमें हिम्मत न हारने की प्रेरणा मिलती है क्योंकि -
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती.
नन्ही चींटी जब दाना ले कर चढ़ती है,
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है.
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना, न अखरता है.
मेहनत उसकी बेकार नहीं हर बार होती,
हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती.
डुबकियाँ सिंधु में गोताखोर लगता है,
जा-जा कर खाली हाथ लौटकर आता है.
मिलते न सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दूना विश्वास इसी हैरानी में.
मुठ्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती.
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो,
क्या कमी रह गयी देखो और सुधार करो.
जब तक न सफल हों नींद-चैन को त्यागो तुम,
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम.
कुछ किये बिना ही जयजयकार नहीं होती,
हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती.
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती.
शुरुआती का रोना भविष्य के लिए अच्छा होता है
जब बच्चा पैदा होता है तो लोग उसे रुलाते हैं, उसके पैर पर प्रहार करते हैं जिससे उसका फेफड़ा सक्रिय हो सके | वह तेजी से रोता है और तेज सांस लेता है, उसका फेफड़ा कार्य करना शुरू कर देता है | जरा सोचे यदि रोने के डर से उसे मार न पड़े अर्थात उसे आरंभिक कष्ट से बचाया जाए तो क्या होगा !!!! दोस्तों हम किसी भी चीज की शुरुआत करते हैं तो निसंदेह हमें अपार कष्ट होता है | परिवर्तन किसी को भी पसंद नहीं है | सभी अपने वर्तमान पोजीशन में संतुष्ट हैं परंतु अगर लोग कष्ट से लड़कर जीत की जिद करेंगे तो आजीवन हस सकते हैं | यह लोगों के हाथ में है कि अभी हंसना, बाद में रोना है या अभी रोना और आजीवन हंसना है |
एक मूर्तिकार एक बड़े से पत्थर को दो भागों में विभाजित किया और और उसी के एक टुकड़े से उसने भगवान की मूर्ति बनाना शुरू किया | छेनी और हथौड़े के प्रहार उसे बहुत भारी लग रहे थे | वह रूखे स्वर में मूर्तिकार से बोला कि मुझे क्यों मार रहे हो, मुझे छोड़ दो और इतराकर वह स्वयं इस प्रकार से अपने आप को तोड़ लिया कि उस पर अगला वार न हो और मूर्ति ना बन सके | फिर क्या था मूर्तिकार ने दूसरे पत्थर से मूर्ति बना ली | अब उस दूसरे मूर्ति को मंदिर में स्थापित करने के लिए खरीदा गया | खरीददार ने बोला कि वहां जो पत्थर पड़ा है वह मुझे दे दो, मंदिर में काम आएगा | खरीददार मूर्ति एवं पत्थर दोनों को मंदिर ले गया |
जिस पत्थर ने शुरुआती दौर में कष्ट उठाकर एवं मार सहकार अपने को पूजनीय बना लिया अब लोग उस पर आजीवन पुष्प चढ़ाते हैं, दूध - घी चढ़ाते हैं, फल चढ़ाते हैं और वही दूसरे पत्थर पर जो भी आता वही नारियल फोड़ लेता | एक पत्थर भगवान नाम से पुकारा जाने लगा जबकि दूसरा पत्थर ही बना रहा | यह सिर्फ एक किवदंती ही नहीं है बल्कि यह वास्तविक जीवन की हकीकत है | आप विद्यार्थी जीवन में परिश्रम करते हैं तो आजीवन उसका भोग करते हैं और यदि विद्यार्थी जीवन में ज्यादा आनंद करते हैं तो आजीवन भोगते हैं | यदि एक एंटरप्रेन्योर अपने व्यवसाय के शुरुआती वर्ष में खूब मेहनत करता है तो ख्याति प्राप्त करता है और आगे वही ख्याति उसे मुकाम तक पहुंचाने में मदद करती है | फैसला आपके हाथ में भोग करना है या भोगना है | 80-20 या 20-80 ?
दुनिया का दस्तूर है कि लोग आपको रोता देख कर खुश होते हैं
बच्चे हमें यह भी सिखाते हैं कि शुरुआत का रोना अच्छा होता है | यह सत्य है कि जब आप रोते हैं तो सामने वाले खुश होते हैं | इसमें हमें दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि आपने यह कहावत जरूर सुनी होगी कि मरे हुए कुत्ते को कोई लात नहीं मारता | आप पर लोग जलते हैं तो आप यह मानिए कि आप सफलता की ओर हैं, वह आप को हतोत्साहित करना चाहते हैं, आप फिक्र न करें अपने कमियों से सीखे | एक दिन ऐसा आएगा जब वह आपके सफलता को देखकर रोएंगे |
पूज्य संत श्री कबीर दास ने लिखा है
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये |
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ||
गंदगी से दूर रहो
जिस प्रकार एक छोटा बच्चा गंदगी बिल्कुल पसंद नहीं करता और तुरंत ही रोना शुरू कर देता है एवं साफ करने की जिद करता है | हमें भी अपने दिमाग की गंदगी को तुरंत ही साफ कर लेना चाहिए |
मल्टीटास्किंग बनो
क्या आप जानते हैं कि एक नवजात में यह प्रतिभा होती है कि वह एक ही नली से दुग्ध एवं प्राणवायु दोनों एक साथ ग्रहण करता है | अपने आप में वह मल्टीटास्किंग प्रतिभा का प्रयोग करता है एवं अपने शरीर को आवश्यक तत्व जल - भोजन एवं हवा की निरंतर आपूर्ति करता है और यह हवा और दुग्ध उसके स्वास नली में कभी भी नही फंसती है | बच्चा हमें यह सिखाना चाहता है की कंपटीशन के दौर में हम किसी एक चीज को पकड़कर नहीं चल सकते | हमें एक साथ कई कार्य निपटाने पड़ेंगे एवं अपने मिनट-मिनट का प्रयोग करना पड़ेगा एवं सभी कार्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करना पड़ेगा जिससे सभी कार्य सामान्य ढंग से बिना किसी बाधा के संचालित हो सके |
स्नेह सफलता की कुंजी है
अंत में जिस प्रकार एक इन्फेंट का स्नेह और निष्कपट होना आसपास के सभी लोगो निस्वार्थ अपनी ओर आकर्षित करता है एवं उन्हें अपने साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करता है, हमें यह बताता है कि हमें अपने करीबियों से हमेशा स्नेह पूर्वक व्यवहार करना चाहिए वह ग्राहक, मित्र, परिवार, रिश्तेदार, सरकार, नियोक्ता, कर्मचारी, सेवा प्रदाता, सेवक इत्यादि कोई भी हो | जब सभी आपसे दिल से जुड़ेंगे तो सफलता आपके कदम चूमेगी क्योंकि सभी आपके साथ होंगे | दोस्तों हाथ की पांचों उंगलियों के अलग-अलग नाम कनिष्ठका, अनामिका, मध्यमा, तर्जनी और अंगूठा होता है इन पांचों में अलग-अलग कुछ करने का सामर्थ्य कुछ ज्यादा नहीं होता परंतु साथ मिलने पर बड़े-बड़े शत्रुओं के थोबड़े तोड़ सकती है |
दोस्तों मुझे आशा ही नहीं परंतु पूर्ण विश्वास है की यह लेख आपको जरूर सोचने के लिए एवं प्रकृति के नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करेगा | आप अवश्य ही कुछ नया सीखेंगे एवं लेख को पसंद करेंगे | इसी तरह का अन्य लेख 'जो होता है अच्छे के लिए होता है" को पाठकों द्वारा काफी पसंद किया गया है जिसे आप मेरे ब्लॉग www.omprakashkasera.com पर पा सकते हैं | यदि आपको लेख पसंद आए और आगे भी ऐसे लेख पढ़ना चाहते हैं तो आप उपरोक्त ब्लॉग पर सब्सक्राइब कर सकते हैं जिससे कि लेख आपको तुरंत ही आपके मेल बॉक्स में प्राप्त हो सके |
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आपके अमूल्य समय और मेरे उत्साह वर्धन के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद |
इसी के साथ जय हिंद |
आपका प्रिय.....
ढेरों शुभ कामनाओं के साथ......
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3 टिप्पणियाँ
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