प्रिय पाठक,

सबसे पहले आज आपको श्री कृष्ण जन्मोत्सव की बहुत-बहुत शुभकामनाएं ।

आज जन्मोत्सव की इस पावन बेला पर हमें श्री कृष्ण से उनके शिक्षाओं से कुछ सीख लेनी चाहिए । हम छोटी-छोटी परेशानियों पर निराश हो जाते हैं।

महाभारत का एक प्रसंग हमें कुछ विपत्तियो एवं परेशानियों से सीखने के लिए प्रेरित करता है ।

बात उस समय की है जब कर्ण अपने अंतिम समय पर श्री कृष्ण से अपने दुर्भाग्यशाली होने की अनेकों शिकायतें करते है ।

कर्ण बोलते हैं कि हे कृष्ण ! मैं कितना अभागा । बताओ, मेरा क्या दोस ?

जब मैं पैदा हुआ तो मेरी स्वयं की मां ने मुझे गंगा में प्रवाहित कर दिया। मैं क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के बावजूद सूत पुत्र कहा जाने लगा । मैं हमेशा उपहास का कारण बना । गुरु द्रोणाचार्य ने हमें इस कारण शिक्षा देने से मना कर दिया कि मैं सूत पुत्र था जबकि मैं क्षत्रिय था । गुरु परशुराम ने मुझे क्षत्रिय होने की सजा दी और मुझे यह श्राप दिया की जरूरत पड़ने पर उनसे ली हुई शिक्षा मैं भूल जाऊंगा । 

परशुराम ने क्षत्रिय मानते हुए श्राप दिया जबकि द्रोणाचार्य ने क्षत्रिय न मानते हुए मुझे अस्त्र-शस्त्र विद्या सीखने से इनकार किया । मैं तो कहीं का भी नहीं था । 

जब मैंने गरीब की मदद करनी चाहिए और मिट्टी को निचोड़ कर उससे घी अलग किया तो धरती माता ने मुझे श्राप दे दिया। द्रौपदी के स्वयंवर में मेरे योग्य होने पर भी मुझे अधिकार नहीं दिया गया और मुझे वहां भी सूत पुत्र कहकर दुत्कारा गया । छल पूर्वक इंद्र ने मुझसे कवच–कुंडल भी दान में ले लिया ।

श्री कृष्ण अत्यंत शांत रहे और मुस्कुराते हुए बोले हे कर्ण ! 

दुख तो तुमने भी सही और दुख तो मैं भी सही । बस अन्तर यह है कि तुम जल-जलकर और हम हंस-हंसकर ।

तुमने तो मेरा दुख देखा ही नहीं । तुम अपनी इतनी भी विपत्तियो पर घबरा रहे हो तो मेरी भी विपत्ति सुनो । 

मेरे पैदा होने की वजह से मेरी मां को त्रास मिलने लगा । मैं अपने माता-पिता के कष्ट का कारण बना । मेरे कारण मेरे भाई बहनों को मारा गया । जब मैं पैदा हुआ तो मुझे मेरी मां से जुदा होना पड़ा । थोड़ा बड़ा हुआ तो जहर पिलाने पूतना आ गई । मुझे बार-बार मरवाने की कोशिश की गई । मैं बचपन में गाय चराता था । पालने वाली मां को भी 11 वर्ष में छोड़ना पड़ा । मेरी गुरुकुल की शिक्षा ही 16 वर्ष बाद शुरू हुई । जब बड़ा हुआ तब गोपियों और ग्वालो से तथा अपने घर वालों से दूर जाना पड़ा । मथुरा आने पर जरासंध ने 17 बार मेरे ऊपर चढ़ाई की । द्रौपदी ने भी मुझ पर आरोप लगाए कि तुम अभी तक कहां थे कन्हैया । 

यह वही कृष्ण है जो हमेशा समझौते में विश्वास रखते थे और उसके बावजूद गांधारी ने इल्जाम लगाया और श्राप दिया । उनपर अनेकों लांछन लगे कि उन्होंने बंधु–बंधुओं को मार दिया । कृष्ण होना आसान नहीं है ।

श्री कृष्ण हमें यही सिखाते हैं कि परिस्थितियां कितनी भी विषम क्यों न हो, हमें उनसे डटकर मुकाबला करना है । 

जरा आप उस क्षण को याद करें जब आप परेशान रहे हो और दूसरा भी परेशान रहा हो । क्या ऐसा हो सकता है? बिल्कुल नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता ।

क्योंकि जब आप रोते हैं तो आप अकेले रोते हैं और जब आप हंसते हैं तो सारा संसार आपके साथ हंसता है । 

जब आप रोते रहते हैं तो लोग आपसे कटने लगते हैं और जब आप हंसते रहते हैं तो लोग आपके सामने रहते हैं ।

बस हमें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहना चाहिए क्योंकि भगवतगीता-अध्याय तीन-कर्मयोग कर्मयोग में श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म का पहल तुम्हें करना पड़ेगा, फिर मैं भी करूंगा, लेकिन शुरुआत तो तुम्हें करना पड़ेगा । 

श्लोक – 

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥

अर्थात –

हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |                                                

॥कर्मयोग-भगवत गीता-अध्याय तीन-श्लोक-22॥


श्लोक – 

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

अर्थात –

हे पार्थ! यदि कदाचित्‌ मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं |                         

॥कर्मयोग-भगवत गीता-अध्याय तीन-श्लोक-23॥


श्लोक – 

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

अर्थात –

यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ।                         

॥कर्मयोग-भगवत गीता-अध्याय तीन-श्लोक-24॥


श्लोक – 

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥

अर्थात –

हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे                             

॥कर्मयोग-भगवत गीता-अध्याय तीन-श्लोक-25॥

कर्म तो सबको करना पड़ता है । चाहे वह शिकार हो या शिकारी । शिकार को अपनी जान बचाने के लिए तथा शिकारी को अपनी जान भूख से बचाने के लिए । 

यदि जंगल का राजा शेर स्वयं अपना शिकार न करे तो उसे भी भूखा ही रहना पड़ता है ।

हम हमेशा बत्ती बुझा कर देखते हैं कि अंधेरा कितना है और जिंदगी के आईने में दरारे तलाशते हैं |

मान लो तो हार ठान लो तो जीत । 

हारे हुए लोगों की सलाह सुनिए और जीते हुए लोगों का तजुर्बा । 

हारेंगे तो सीखेंगे और जीतेंगे तो सिखाएंगे ।


जय श्री कृष्ण । 

आपको पुनः श्री कृष्ण जन्माष्टमी की ढेरो शुभकामनाएं ।